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क्यों गुजरात के निकाय चुनावों में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा?

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By सावजराज सिंह,

नरेंद्र मोदी के गुजरात से दिल्ली जाने के बाद गुजरात में यह पहला चुनाव था. और 3 दिसम्बर को आये चुनाव नतीजों के मुताबिक भाजपा को शिकस्त मिली है. जहां शहरी क्षेत्रों में भाजपा विजयी हुई है, वहीँ ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा की करारी हार हुई है. सभी 6 महानगरपालिकाओं में भाजपा की जीत हुई है पर कांग्रेस के वोट प्रतिशत और बैठकों में निश्चित तौर पर बढ़ोतरी हुई है. अहमदाबाद, सूरत, बड़ौदा, भावनगर और जामनगर महानगरपालिकाओं में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला है लेकिन राजकोट महानगरपालिका बचा पाने में भाजपा को काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है.


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ग्रामीण क्षेत्रों में 31 जिला पंचायतों में से 23 पर कांग्रेस ने कब्जा करते हुए बड़ी जीत हासिल की है और लेकिन भाजपा को सिर्फ 6 पर जीत मिली है. कुल मिलाकर 988 जिला पंचायत बैठकों में कांग्रेस को 472 और भाजपा को 244 बैठकें प्राप्त हुई है जबकि 2010 के निकाय चुनावों में स्थिति बिल्कुल इससे उलट थी.

वहीं तालुका पंचायतों का चित्र देखे तो 230 तालुका पंचायतों में से 134 तालुका पंचायतों पर कांग्रेस ने पंजा जमाया है और 73 पर भाजपा का कमल खिला है. कुल मिलाकर देखें तो ग्रामीण क्षेत्रों में कांग्रेस ने बुरी तरह से भाजपा को हराया है.

एक तरह से देखा जाए तो यह भाजपा के लिए पिछड़ने का दौर है. दिल्ली, बिहार के बाद ये भाजपा की लगातार तीसरी बड़ी हार है. यह एक स्पष्ट संदेश है कि लोग नरेंद्र मोदी सरकार से और भाजपा की नीतियों से खुश नहीं हैं.

भाजपा की हार के मुख्य कारण है महंगाई, भ्रष्टाचार, ग्रामीण क्षेत्रों की उपेक्षा, गुंडागर्दी, किसानों के प्रति उदासीनता, पटेल आरक्षण और जातिगत समीकरण. महंगाई से त्रस्त गरीब वर्ग और मध्यम वर्ग भाजपा के विरुद्ध गया. दो सौ रुपए दाल, महंगी सब्जियां, महंगी बिजली, महंगी शिक्षा की वजह से गरीब वर्ग और मध्यम वर्ग की हालत खराब थी तो उसका असर दिखा चुनाव परिणामों पर. शहरी क्षेत्रों का उच्च मध्यम वर्ग और अमीर वर्ग भाजपा की ओर रहा पर गरीब वर्ग और मध्यम वर्ग ने नाराज होकर कांग्रेस से हाथ मिलाया.

एक और नामालूम वजह है भ्रष्टाचार. भ्रष्टाचार से पूरा गुजरात त्रस्त है. छोटे-मोटे कामों के लिए लोगों से रिश्वत मांगी जाती है नहीं तो काम लटकाया जाता है और लोगों को परेशान किया जाता है. मुख्यतः भ्रष्टाचार तंत्र और स्थानीय भाजपा के नेता और कार्यकर्ता करते हैं. इन स्थानीय नेताओं, कार्यकर्ताओं का सरकारी कामों को लेकर अनुबंध होता है. ठीक तरह से काम न करके बडी मलाई खाकर कमजोर काम करते हैं. रोड, तालाब से लेकर स्थानीय कारखानों में भी इनके कॉन्ट्रैक्ट रहते है और भरपूर भ्रष्टाचार होता है. लोग इस तरह के भ्रष्टाचार से तंग आ गये थे जो नतीजों में साफ दिखाई दे रहा है.

गुजरात के विकास को भाजपा हमेशा एक मॉडल के रूप में प्रस्तुत करते आयी है. लेकिन अतीत को खंगाला जाये तो सच सामने आ जायेगा कि गुजरात सदियों से समृद्ध रहा है. इसी गुजरात की समृद्धि की बात सुनकर मुहम्मद गजनवी सत्रह बार गुजरात लूटने आया था. आठ सौ साल पहले भी गुजरात का मांडवी सबसे समृद्ध बंदरगाह था और इस बंदरगाह पर अस्सी देशों का व्यापार चलता था. दो सौ साल पहले भूकंप में नष्ट हुए लखपत की रोज की एक लाख कोरी(उस समय का स्थानीय चलन) की कमाई थी और यहाँ की समृद्धि देश विदेश में प्रसिद्ध थी. अंग्रेजों के समय में गुजरात के बलदिया और माधापर गांवों की बैंक मूडी पूरे एशिया में सबसे ज्यादा थी. और सारी दुनिया के समृद्ध गांवों में से थे. गुजरात का विकास किसी सरकार या नेता की बदौलत नहीं पर गुजरात की प्रजा की व्यापारी सूझबूझ, उद्योग साहसिकता और सख्त परिश्रम की वजह से था.

मोदी सरकार ने सडकें अच्छी बनाई और अमीर वर्ग के लिए नीतियां बनाई, जिसका फायदा हर वर्ग को नहीं मिला. उस विकास का फैलाव बहुत सीमित था. एक तरह से वह छद्म विकास था. किसी आम इंसान की जमीन नहीं बढ़ी पर अडानी, अंबानी, आर्चियन ग्रुप को लाखों एकड़ जमीन पानी के भाव दी गई. स्थानीय लोग पशु पालक और किसान थे, उनकी जमीन उद्योगपतियो को दी गई. शुरुआत में लोगों को लगा कि इससे भला होगा इसलिए बिना विरोध वह भाजपा का समर्थन करते रहे पर उद्योगपतियो ने जमीन पर कब्जा जमा लिया और ग्रामीण लोगों का कुछ फायदा नहीं हुआ. उलटा जमीन छिन जाने से पशुओं के लिए जमीन बची नहीं और प्रदूषण से किसानों की खेती बर्बाद होने लगी. हालत गंभीर हो गई और लोग विकास की वास्तविकता समझ गए. इस बार ग्रामीण लोगों ने छ्द्म विकास के विरोध में मतदान किया. भाजपा सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों की उपेक्षा की बदले में प्रजा ने भाजपा की सख्त उपेक्षा से जवाब दिया है.

गुंडागर्दी भी भाजपा की हार का मुख्य कारण रही है. यहां गुंडागर्दी के दो प्रकार है - हार्ड गुंडागर्दी और सॉफ्ट गुंडागर्दी. हार्ड गुंडागर्दी राज्य सरकार और प्रदेश के भाजपा नेता दिखाते आये हैं. आंदोलनकारियों पर पुलिस से लाठियाँ बरसाना या राजद्रोह के केसों में सरकार का विरोध करने वालों को जेल में डाल देने जैसी गुंडागर्दी सरकार की देखरेख में होती रही है. दूसरी गुंडागर्दी भाजपा के नेता दिखाते हैं, उनका विरोध करने वालों के लिए. इन नेताओं के संदिग्ध आर्थिक स्त्रोत पर, खनिज चोरी पर, भ्रष्टाचारों पर उंगली उठाने वाले लोगों को ये न केवल परेशान करते हैं बल्कि धमकी, पिटाई करके उन्हें चुप करा दिया जाता है.

सॉफ्ट गुंडागर्दी ज्यादा खतरनाक है. स्थानीय सहकारी समितियों, जल समितियों, संगठनो में ज्यादातर भाजपा के स्थानीय नेता सदस्य होते हैं. और कंपनियों, फैक्टरीयों में भी इन स्थानीय नेताओं का दबदबा चलता है. ये लोग आर्थिक पाबंदियां लगाकर या नौकरी, मजदूरी से निकलवाकर आम लोगों को परेशान करते हैं. झील के पानी से किसानों की खेती होती है तो जल सिंचाई समिति के सदस्य बीच में पानी अटकाकर फसल बर्बाद करा देते हैं. दुग्ध सहकारी समितियों के सदस्य दूध का फैट कम देते हैं, दूध के भाव में कमीशन खाते हैं और दूध का पैसा लेट करा देते हैं. जल प्रबंधन के सदस्य गांवों में पीने का पानी बंद करा देते हैं. इस तरह की सॉफ्ट गुंडागर्दी का पूरा जाल है आम लोगों को परेशान करने के लिए. इस बार ग्रामीण लोगों ने इस गुंडागर्दी के खिलाफ अपना वोट दिया है.

किसानों के प्रति सरकार की उदासीनता भी रोष का एक कारण बनी है. किसानों को कपास और मूंगफली की कीमत काफी कम मिली है. किसान कर्ज में डूबे हैं और उन्होंने भाजपा के विरुद्ध अपना मत दिया.

पटेल आरक्षण आंदोलन को लेकर सरकार का रवैया उदास रहा था. सरकार पूरी तरह स्थिति को समझने और संभालने के लिए असफल रही. सरकार ने जो लाठियां चलवाई और प्रदेश का माहौल बिगड़ा उससे पटेल समुदाय में सरकार के खिलाफ रोष व्याप्त हुआ. फिर सरकार ने आंदोलनकारियों पर राष्ट्रद्रोह का केस लगाकर उन्हें जेलों में बंद कर दिया. इससे सरकार की छवि न सिर्फ पटेल समुदाय में बल्कि और समुदायों में भी काफी बिगड़ी. हालांकि चुनाव नतीजों में पटेल आरक्षण का असर आंशिक रहा है. खासकर उत्तर गुजरात और सौराष्ट्र में ही इसका कुछ असर पड़ा है.

जातिगत समीकरण इस बार अनायास ही कांग्रेस के सही बैठे. स्थानीय निकाय चुनावों में जातिवाद मुख्य रूप से शामिल होता ही है. लोग पार्टी या प्रतिभा को नहीं देखते, खासकर जाति के आधार पर वोट देते हैं. इस बार कांग्रेस का जाति समीकरण अनायास ही ठीक रहा था. और यह भी एक वजह रही भाजपा की हार की जबकि जाति समीकरणों की रणनीति में भाजपा माहिर मानी जाती है पर इस बार ठीक से कुछ नहीं बैठा.

यह गुजरात का जनादेश कांग्रेस की जीत किसी स्थिति में नहीं है. हालांकि शिवसेना ने इसे कांग्रेस की जीत के तौर पर देखा है. कांग्रेस ने पिछले दो दशकों में विपक्ष की जिम्मेदारी जैसा कुछ निभाया नहीं है. गुजरात में कांग्रेस कभी मजबूत विपक्ष के तौर पर खड़ी ही नहीं रही. लेकिन प्रजा के पास और कोई विकल्प नहीं था इसलिए मजबूरन पंजे की उंगली थामनी पडी है. इस पूरे चुनाव के दौरान कोंग्रेस की न कोई रणनीति थी न खास कुछ चुनाव प्रचार में दम. पूरे चुनाव में परंपरागत रीति की तरह कांग्रेस सोती ही रही. पर प्रजा ने उनकी उंगली पकडी है यह भी एक सच है.

यह चुनाव गुजरात में भाजपा के गढ़ पर यह प्रजा का पहला प्रहार है, और निश्चित रूप से इस प्रहार के बाद से भाजपा का गढ़ बिखर गया है.

[सावजराज कच्छ, गुजरात के रहने वाले हैं. स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे sawajrajsodha@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है. यह उनके अपने विचार हैं. तस्वीर 'इन्डियन एक्सप्रेस'से साभार.]


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