Quantcast
Channel: TwoCircles.net - हिन्दी
Viewing all articles
Browse latest Browse all 597

क्यों बिहार चुनाव के नतीजे लेफ्ट के लिए आशाजनक नहीं हैं?

0
0

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:बिहार के चुनावी नतीजों के साथ वामदलों की अहमियत और उनके प्रदर्शन पर चर्चा का बाज़ार गर्म है. जहां यह चुनाव राजद और कांग्रेस के लिए किसी स्वप्न से कम नहीं है, वहीं वामदलों का प्रदर्शन भी एक रोचक घटना है.

आंकड़े इस बात के गवाह है कि लेफ्ट अपनी पूरी मज़बूती के साथ इस चुनाव में अपने वजूद का अहसास कराने के लिए जुटी रही, मगर नतीजों ने कुछ और ही हक़ीक़त बयान की. आज़ादी के बाद अब तक के सफ़र में लेफ्ट पार्टियां बिहार में धीरे-धीरे अपना जनाधार खोती नज़र आई हैं. 2010 में तो स्थिति और भी गंभीर हो गई लेकिन इस बार भाकपा(माले) ने 3 सीटें लाकर लेफ्ट पार्टियों की धूमिल होती छवि को ज़रूर बचा लिया है. हालांकि यहां इस तथ्य को भी ध्यान में ज़रूर रखना चाहिए कि माले 1990 से बिहार के चुनावी जंग में शामिल हो रही है.


0 (1)

1951 से 2015 तक के बिहार विधानसभा चुनाव पर ग़ौर करें तो लेफ्ट पार्टियों को सबसे अधिक सीटें 1995 के चुनाव में आई थी. इस बार लेफ्ट पार्टियों ने 38 सीटों पर जीत हासिल की थी. इन 38 सीटों में 26 सीटें सीपीआई, 6 सीटें सीपीआई (एम) और 6 सीपीआई (एमएल) को मिली थी. हालांकि 1972 के चुनाव में सीपीआई ने अकेले 35 सीटें हासिल की थी.

आंकड़े बताते हैं कि 1995 के बाद से लेफ्ट पार्टियों की हालात धीरे-धीरे ख़राब होती गई. 2000 में लेफ्ट पार्टियों को 13 सीटें मिली. उसके बाद फरवरी 2005 में 6 तो आगे चलकर नवम्बर 2005 में 9 सीटें हासिल हुईं. लेकिन 2010 में लेफ्ट एक सीट पर पहुंच गई. अब इस बार 3 सीटें हासिल की हैं. यानी गरीबों के हक़ की लड़ाई लड़ने की पहचान रखने वाली इन पार्टियों के समक्ष आज अपना वजूद बचाने का संकट नज़र आ रहा है, तो यह चिन्ता का विषय ज़रूर है.

चुनावी कवेरज के दौरान ज़िला समस्तीपुर के विभूतिपुर विधानसभा क्षेत्र में TwoCircles.net की टीम गयी थी. यह वही क्षेत्र है जो कभी वामपंथियों के लिए मास्को कहलाता था. वामपंथी इसे लालगढ़ के रूप में भी शुमार करते हैं तो वहीं कुछ लोग इसे भारत के लेनिनग्राद के नाम से भी जानते हैं. एक वक़्त था कि सीपीएम के रामदेव वर्मा यहां राज करते थे. रामदेव वर्मा यहां से 6 बार जीत दर्ज करके विधायक रह चुके हैं, लेकिन 2010 में जदयू के राम बालक सिंह ने वामपंथियों के इस क़िले को भेदकर समाजवादियों का झंडा गाड़ दिया था और इस बार भी झंडा जदयू ने ही गाड़ा है.

विभूतिपुर में हमारी मुलाक़ात मनीष से हुई जो खुद को लेनिन कहलाना पसंद करते हैं. मनीष की बातें कई मायनों में अहम थी. लेफ्ट के साथ जुड़े होने के बाद भी उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा था, ‘इस बार जीत नीतीश की ही होगी.’ यह पूछने पर कि ऐसा क्यों? आप तो खुद को वामपंथी विचारधारा का बता रहे थे. इस सवाल पर मनीष ने थोड़ी मायूसी के साथ कहा था कि विचारधारा तो अभी भी वही है लेकिन हमारी विचारधारा में कुछ मतलबी नेता भी शामिल हो गए हैं. मनीष ने कहा था, 'हमारी लड़ाई दक्षिणपंथियों से है. ऐसे में हमें उसका साथ देना चाहिए जो हमारे दुश्मन को मैदान में पटखनी दे रहा हो.’

बकौल मनीष, अब लेफ्ट पार्टियों के नेताओं की कथनी व करनी में धीरे-धीरे काफी फ़र्क आ रहा है. यही वजह है कि बिहार से वामपंथियों का दबदबा लगभग ख़त्म-सा हो गया है. यह सोचने की बात है कि जब आपकी लड़ाई मोदी से है तो क्यों नहीं महागठबंधन के साथ शामिल होने की कोशिश की गई? हद तो यह है कि वामपंथियों में भी एकता नहीं हैं. कई जगहों पर सीपीआई और सीपीएम अलग-अलग लड़ रहे हैं और कह रहे हैं कि दोस्ताना लड़ाई है. इलाके के वामपंथियों का सवाल है कि क्या लड़ाई भी कभी दोस्ताना होती है क्या?

इन बातों व सवालों को जानने-समझने के लिए हमने लेफ्ट से जुड़े कई नेताओं से बात व मुलाक़ात की. सीपीआई से जुड़े सुमन शरण का कहना था कि इस बार लड़ाई हमारे पहचान की थी. हमने कई बार तथाकथित सेकुलर जमाअतों को अपना समर्थन दिया है. लेकिन इस बार एनडीए व महागठबंधन मेरी नज़र में बराबर हैं. नीतीश कुमार का सेकूलरिज़्म से कोई सम्बन्ध नहीं है. ये सभी मतलबी लोग हैं. हालांकि वे बताते हैं कि पहली बार 6 लेफ्ट पार्टियों ने मिलकर अपना गठबंधन बनाया था. ये बिहार में पहली बार हुआ. इसे हमें आगे भी बरक़रार रखना होगा. कामयाबी ज़रूर मिलेगी.

वहीं दूसरे लोगों का कहना था कि राजनीतिक पार्टियां अब प्राईवेट लिमिटेड कम्पनी बन चुके हैं. सारा खेल पैसों का है. लेकिन लेफ्ट पार्टियों के पास आधुनिक प्रचार-प्रसार के साधन नहीं हैं. भले ही उन्हें सीटें न मिल रही हों लेकिन हमारा जनाधार कम नहीं हुआ है. उनकी दलील उनके वोटिंग प्रतिशत पर आधारित है.

आंकड़े बताते हैं कि सीपीआई (एमएल)(एल) को 5,87,701 लोगों ने इस बार वोट दिया है. सीपीआई को 5,16,699 मतदाताओं ने पसंद किया है तो वहीं सीपीआई (एम) के झोली में भी 2,32,149 वोट आते दिखें हैं. लेकिन चुनाव नतीजे यह भी बताते हैं कि कई सीटों पर इन वोटों ने बीजेपी की राह ज़रूर हमवार की है. इस बारे में पूरी रिपोर्ट हम जल्द लेकर हाज़िर होंगे.

पार्टियों के दावे जो भी हों लेकिन भारत में लेफ्ट की राजनीति दिनोंदिन कमज़ोर होती जा रही है. सभी वामदलों का एक-दूसरे से 'दोस्ताना संघर्ष'ज़ाहिरा तौर पर लेफ्ट पार्टियों के मुहिम को और कमज़ोर करता जा रहा है. कहीं न कहीं एक अदद और दमदार नेतृत्व का अभाव व पार्टी के प्रचार की कमी ने भी लेफ्ट को कमज़ोर करने का काम किया है. ऐसे में बिहार चुनाव के नतीजों को लेफ्ट के लिए उम्मीद के नहीं हताशा के कम असफल अध्याय की तरह देखना चाहिए.


Viewing all articles
Browse latest Browse all 597

Latest Images





Latest Images