अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
पटना के जिस वीरचन्द पटेल पथ से होकर बिहार की सत्ता गुज़रती है, उसी पथ पर आपको 48 वर्षीय सईदा भी मिल जाएंगी, जो पिछले 30 सालों से लगातार अपने हाथों से बने मिट्टी के चूल्हे बेच रही हैं. बेहद ग़रीब और दो जून की रोटी को तरसती इन आंखों ने लाख मुसीबतें झेलने के बावजूद अपनी रोज़ी-रोटी का ज़रिया नहीं बदला.
किसी ज़माने में हाथ की इस कारीगरी से उनका पेट और परिवार दोनों चल जाता था, लेकिन सबके घरों में गैस-सिलेंडर पहुंच जाने के कारण मिट्टी के चूल्हों की अब कोई मांग नहीं है. ऐसे में उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें दिखना आम बात है. लेकिन सईदा की बड़ी चिंता अपनी रोज़ी-रोटी से ज़्यादा हमारे आपसी सौहार्द की है.
सच तो यह है कि बिहार के फ़िज़ाओं में हाल के चुनाव ने चाहे जितनी भी नफ़रत घोल दी हो, मगर सईदा के दुनिया पर इसका कोई असर नहीं है. हर बार की तरह इस बार भी सईदा ने राजद के दफ़्तर के क़रीब ही मिट्टी के चुल्हों की अपनी दुकान सजा रखी है. उसे अब बस छठ का इंतज़ार है.
वो कहती हैं, ‘हमारी सबसे बड़ी उम्मीद छठ का पर्व है.’ स्पष्ट रहे कि छठ बिहार में हिन्दुओं का सबसे अहम त्योहार है.
आगे सईदा बताती हैं, ‘मैंने जबसे होश संभाला है, कभी भी हिन्दू-मुस्लिम का फ़र्क़ महसूस नहीं किया है. लेकिन इस बार मन में अजीब सा डर है.’ ये बोलने के बाद वो ख़ामोश हो जाती हैं.
वो आगे बोलती हैं, ‘लोग चूल्हे खरीदने आएंगे तो उन्हें मेरे धर्म से कोई मतलब नहीं होगा, बल्कि उनका पर्व मेरे हाथ के बने चूल्हे पर उसी पवित्रता से मनेगा, जैसा पहले से मनता आ रहा है.’
सईदा के हाथों बने मिट्टी के इन चुल्हों की क़ीमत सिर्फ़ 40-50 रूपये ही है. लेकिन जब लोग ज़्यादा मोल-भाव करते हैं तो वो इसे सस्ते में भी बेच देती हैं. वो बताती हैं, ‘पिछली बार मेरे ज़्यादातर चुल्हे बच गए थे. इस बार भी पहले जितने ग्राहक नहीं आ रहे हैं. इसलिए जितना मिल जाता है, उतने में बेच देती हूं.’ उनके मुताबिक़ अभी तक पूरे दिन भर में सिर्फ़ 4-5 चुल्हे ही बिकते हैं.
सईदा के परिवार में 10 लोग हैं. दो बेटे भी हैं. बहुए भी हैं. और उनके बच्चे भी हैं. लेकिन सईदा की शिकायत है कि बेटे पैसे कमाकर उन्हें नहीं देते. घर का खर्च ज़्यादातर उन्हें ही उठाना पड़ता है. पोते व एक नाती भी हमेशा उनके साथ ही रहते हैं. सईदा के शौहर भी दिनभर मजदूरी करते हैं. लेकिन सईदा का कहना है कि अब वो बूढ़ा हो गया है, ज़्यादा नहीं कमाता. और महंगाई तो आप देख ही रहे हैं.
सईदा का घर वैसे पास में ही है, लेकिन सईदा को इन दिनों पूरी रात सड़क पर ही गुज़ारनी पड़ती है. हालांकि वो यह भी बताती हैं, ‘सारी रात चुल्हों को वैसे ही सड़कों पर छोड़ देती हैं. तब भी कोई नुक़सान नहीं पहुंचाता. कोई चोरी नहीं करता. हां, कभी-कभी जानवरों का डर बना रहता है कि कहीं गाय-बैल आकर तोड़ न दें. इसीलिए इन दिनों सड़क पर ही पूरी रात गुज़ारती हूं. कम से कम छठ तक तो रहूंगी ही.’
सईदा इन दिनों बीमार भी रहती हैं. मिट्टी लाने में भी परेशानी होती है. इस बार वो मिट्टी फूलपुर से लाई हैं. बल्कि बार-बार जाने से बचने के लिए एक ट्रक मिट्टी एक ही बार मंगवा ली हैं. वो बताती हैं, ‘चूल्हे बनाते-बनाते पूरी उम्र निकल गई. तबीयत ख़राब रहती है फिर भी काम करना पड़ता है. काम करना मेरी मजबूरी है बाबू.’ वो यह भी बताती हैं, ‘छठ के बाद अब बोरसी बनाउंगी. चुल्हा तो तुम्हारे काम का है नहीं, लेकिन एक बोरसी आकर ले जाना. तुमको सस्ते में लगा दूंगी. सिर्फ 30 रूपये...’
दरअसल, सईदा हमारे देश के गंगा-जमुनी तहज़ीब के ज़िन्दा रहने की जीती-जागती मिसाल हैं. मुझे पूरा यक़ीन है कि बिहार के जिस जनता ने साम्प्रदायिकता को नकार कर एक धर्मनिरपेक्ष सरकार चुनी है, बिहार के वही लोग सईदा के चुल्हे ज़रूर खरीदेंगे ताकि सईदा के घर भी चुल्हा जलने का इंतज़ाम हो सके.
साथ ही यह भी उम्मीद है कि सईदा के हाथों बने मिट्टी के चुल्हे इस बार छठ में मुहब्बत के प्रसाद बनेंगे. प्यार की ठेकुए व रोटियां पकेंगी और साम्प्रदायिकता पूरी तरह से भष्म हो जाएगी.