अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
सीमांचल में भाजपा का शो बुरी तरह फ्लॉप रहा. ओवैसी, पप्पू यादव, सपा या एनसीपी के मैदान में उतरने से बड़े फ़ायदे की उम्मीद कर रही भाजपा को सीमांचल की ज़्यादातर सीटों पर धूल फांकनी पड़ गई.
भाजपा ने इस बात की कल्पना भी नहीं की थी कि नतीजे ऐसे आएंगे. मगर नतीजों ने साफ़ कर दिया कि बिहार की जनता ‘कम्यूनल पॉलिटिक्स’ और उसके ‘पोलराईजेशन’ दोनों को लेकर पूरी तरह से आगाह दिखें.
सीमांचल में चार ज़िले आते हैं. किशनगंज, कटिहार, अररिया व पूर्णिया... इन चार ज़िलों में कुल 24 विधानसभा क्षेत्र हैं. अगर 2010 चुनाव के नतीजों की बात करें तो इन 24 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा ने 13 सीटों पर जीत हासिल की थी और इस बार उम्मीद थी कि इन सीटों में और इज़ाफ़ा होगा. लेकिन 2015 चुनाव के नतीजे बताते हैं कि भाजपा की उम्मीदों पर पानी फिर गया. ज़िला किशनगंज में तो पार्टी का खाता भी नहीं खुल सका. तो वहीं अररिया में सिर्फ़ 2 सीटें ही पार्टी की झोली में आईं, जबकि 2010 चुनाव में भाजपा ने यहां 4 सीटें हासिल की थीं. पूर्णिया में भी 2 सीटों पर ही भाजपा जीत दर्ज कर सकी, जबकि 2010 में यहां भी भाजपा को 4 सीटें मिली थीं. 2010 चुनाव में कटिहार ज़िले में बीजेपी को 5 सीटें मिली थीं, लेकिन इस बार यह आंकड़ा 2 सीटों पर ही सिमट गया.
भाजपा को इस बार सीमांचल के 24 सीटों में से सिर्फ 6 सीटों पर ही कामयाबी मिल सकी है. हालांकि 11 सीटों पर वो दूसरे नम्बर की पार्टी ज़रूर रही. हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पूर्णिया के बनमनखी विधानसभा सीट पर पप्पू यादव की पार्टी जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक) की वज़ह से ही कहीं न कहीं फायदा हासिल हुआ है. उसी तरह कटिहार ज़िला के कटिहार विधानसभा सीट व प्राणपुर विधानसभा सीट पर एनसीपी के कारण जीतने में आसानी हुई है, अन्यथा भाजपा सीमांचल में तीन सीटों पर ही सिमट जाती.
सीमांचल में इस बार कांग्रेस का जलवा देखने लायक़ रहा. कांग्रेस को यहां 8 सीटों पर सफलता मिली है. तो वहीं जदयू ने 6 और राजद ने 3 सीटों पर जीत दर्ज की है. वहीं एक सीट सीपीआई (एम) के खाते में आई है.
ऐसे में अगर देखा जाए तो भाजपा ने ओवैसी, पप्पू यादव, सपा या एनसीपी से सीमांचल में जिन फायदों की उम्मीद की थी, वो उसे ज़्यादा मिलता नहीं दिखा. राजनीतिक जानकारों की मानें तो अगर इस चुनाव में बीजेपी को सीमांचल में सफलता मिल जाती तो पार्टी इस राजनीतिक गणित व दांव को आगे आने वाले चुनाव में भी इस्तेमाल करती, मगर बिहार के नतीजों ने यह गणित भी फेल साबित कर दिया