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एकता से पहले विविधता के लिए दौड़ें

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By रवीश कुमार,

राजनीति में जो लोग परिवारवाद में लिंग-आधारित प्रगतिशीलता खोज रहे हैं, उन्हें इस मसले को ठीक से देखना चाहिए. राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनाए जाने पर कई लोगों को लिखते बोलते सुना है कि सोनिया ने भी बेटे पर ही भरोसा किया. बेटी प्रियंका को आगे नहीं बढ़ाया. जैसे प्रियंका गांधी वाकई किसी हाशिये पर रह रही हों. सोनिया गांधी प्रियंका गांधी को ही कांग्रेस अध्यक्ष बनातीं तो क्या परिवारवाद प्रगतिशील हो जाता? लोकतांत्रिक हो जाता? सिंधिया परिवार के नाम पर तो वसुंधरा राजे और ज्योतिरादित्य दोनों हैं. गोपीनाथ मुंडे की दो-दो बेटियां राजनीति में हैं. उसी बीजेपी के टिकट पर जो परिवारवाद को अपनी सुविधा के अनुसार मुद्दा बना देती है मगर इस चतुराई से कि वो सिर्फ गांधी परिवार तक सीमित रहे. महाराष्ट्र चुनाव में एक बेटी को विधायक का टिकट और एक को सांसदी का टिकट देती है. सवाल कांग्रेस को गांधी परिवार से आज़ाद कराने का तो है ही लेकिन क्या इससे कांग्रेस वो कांग्रेस बन जाएगी? क्या हिन्दुस्तान की कोई पार्टी आज़ादी के पहले की कांग्रेस बन सकती है? किस पार्टी में तब की कांग्रेस की तरह नेतृत्व और विचारधारा के स्तर पर इतनी विविधता बची है?

इस सवाल को आप दलीय निष्ठा से ऊपर उठकर देखेंगे तो बहुत कुछ दिखाई देगा. आज़ादी से पहले की कांग्रेस आज के कांग्रेस या बीजेपी या किसी भी दल से अलग थी. आज के दलों से तुलना करेंगे तो बहुत मामलों में इतनी आदर्शवादी कि उसके नज़दीक कोई पहुंच भी नहीं सकता. कांग्रेस एक विचारधारा वाली पार्टी नहीं थी. आज हर पार्टी एक विचारधारा वाली पार्टी बन गई है. कांग्रेस में समाजवाद, वामपंथ, दक्षिणपंथ सब टकरा रहे थे लेकिन असहमतियां टकराव की उस सीमा पर नहीं जा रही थीं कि कोई कांग्रेस से निकल रहा था. शायद उस वक्त का संदर्भ ही ऐसा था कि आप आज़ादी के लक्ष्य को हासिल कर दो दल नहीं बना सकते थे. इसलिए हर दल कांग्रेस में थे और कई दलों के नेता कांग्रेस के नेता थे. जब तक आप इस बुनियादी असहमति-सहमति को नहीं समझेंगे, आप गांधी-नेहरू-पटेल-आज़ाद से लेकर बोस, राजेंद्र प्रसाद जैसे नेताओं के रिश्तों और निष्ठाओं को नहीं समझ पायेंगे.


Patel, Gandhi, Nehru
नेहरू, गांधी और पटेल

नेहरू के अध्यक्ष बनने पर एक जगह पटेल कहते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष के पास कोई तानाशाही शक्तियां नहीं हैं. वे एक सुगठित संगठन के अध्यक्ष होते हैं. कांग्रेस किसी व्यक्ति को निर्वाचित करके, चाहे वह कोई भी हो, अपनी प्रचुर शक्तियों को नहीं छोड़ देती है. नेहरू ने इस बात के लिए पटेल के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की. न पटेल के इस्तीफे की मांग हुई. पटेल और नेहरू के बीच कई बातों को लेकर मतभेद थे और वो मतभेद इतिहास का हिस्सा हैं जिन पर इतिहास में काफी कुछ लिखा गया है. क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई पटेल जैसी बात आज बीजेपी में कह दें? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ या अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ़, या यही बात कोई आज के कांग्रेस में राहुल या सोनिया गांधी के खिलाफ कह सकता है? समाजवादी पार्टी में कह सकता है या बसपा में कह सकता है? कहां कह सकता है? इतिहास के नेताओं के मतभेदों के नाम पर रिश्तों की नई व्याख्या हो रही है लेकिन उनकी इस प्रवृत्ति से भाषण देने वाले नेता क्या कुछ सीख रहे हैं? पटेल ने तो सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष पद के उम्मीदवार के रूप में पसंद नहीं किया था. तो क्या इतिहास के इस तथ्य को बंगाल की राजनीति में बोस को नायक और पटेल को खलनायक बनाने का खेल चल दिया जाए?

नेशनल बुक ट्रस्ट ने ‘गांधी पटेल - पत्र और भाषण, सहमति के बीच असहमति’ नाम से एक पुस्तक प्रकाशित की है. डा नीरजा सिंह ने गांधी और पटेल के बीच हुए पत्र व्यवहारों का संकलन किया है. हिन्दी में है और मात्र नब्बे रुपये की है. इन पत्रों को आप पढ़ेंगे तो लगेगा कि आज पटेल की याद में इंडिया गेट पर दौड़ा ही जा सकता है, पटेल नहीं बना जा सकता. कोई सरदार पटेल जैसा साहसिक होगा तो वो पार्टी से निकाल दिया जाएगा. सरदार पटेल तमाम मुद्दों पर अपनी स्पष्टता व्यक्त करने वाले राजनीति के वे प्रतीक हैं, जिनके जैसा वही बन सकता है जो दूसरों को भी सरदार की पगड़ी पहने देख बर्दाश्त कर सकता है. अपने विचार को हर कीमत पर कहना और विपरीत दिशा में जाने का साहसिक फैसला कर पाने की क्षमता सिर्फ और सिर्फ सरदार पटेल में दिखती है. लेकिन सरदार पटेल ने इसी के साथ एक और बेमिसाल उदाहरण पेश किया है, वो है संबंधों को विचार से अलग रखना.

गांधी से असहमत होते हुए भी गांधी के प्रति श्रद्धा और सेवा करने की मिसाल पेश की है. एक बार दोनों जेल में साथ हो गए. गांधी जो खाते थे, वही पटेल खाने लगे. उनके लिए दातुन बनाने की ज़िम्मेदारी ले ली. किसी नेता को इस किताब से दोनों के बीच हुए पत्राचार को दे दें तो वो राजनीति में ऐसे पेश करेगा जैसे आज आप सोचने लगेंगे कि पटेल और गांधी दुश्मन थे. सिर्फ पटेल ने नहीं, बल्कि गांधी ने भी पटेल से असहमत होते भी हुए भी उनके प्रति अपना विश्वास कभी नहीं खोया. सम्मान में कोई कमी नहीं आई. गांधी भी असहमत होते हुए कहते थे कि अगर आपका मन कह रहा है तो वही कीजिए. ऐसा ही नाज़ुक और स्मरणीय रिश्ता पटेल और नेहरू का रहा है. विरोध के बावजूद कोई पटेल और नेहरू को सार्वजनिक रूप से एक दूसरे से लड़ा नहीं सका लेकिन आज की राजनीति दोनों की मूर्तियों को एक दूसरे से भिड़ा रही है. पटेल जब बहुत बीमार हो गए तो दिल्ली से जाने लगे. जाते वक्त उन्होंने किसी बड़े नेता(नाम याद नहीं आ रहा) का हाथ पकड़ कर कहा कि मैं अब बहुत बीमार रहने लगा हूं. दिल्ली नहीं लौट पाऊंगा. तुम नेहरू का साथ कभी मत छोड़ना. जवाहर मेरे बिना अकेला पड़ जाएगा.

इतिहास को याद रखने का तरीका दौड़ में शामिल होना नहीं है. वह एक अच्छा प्रतीक है लेकिन इतिहास को उसके संदर्भों और यात्राओं में ही देखना चाहिए. जवाहर और सरदार की जोड़ी को उनके योगदानों के सहारे अलग किया जा रहा है. कोई सरदार की सख्ती और उदारता तो दिखाए और यह भी तो सोचे कि हर फैसला अपनी मर्जी और साहस से लेने वाले सरदार कांग्रेस से बाहर क्यों नहीं गए क्योंकि तब कांग्रेस में हर कोई रह सकता था और वो कांग्रेस गांधी-नेहरू से नहीं बनती थी बल्कि सरदार पटेल और सुभाषचंद्र बोस से भी बनती थी, जिन्हें चुने जाने के बाद हटा दिया गया. 1936 में सरदार जिस मुद्दे पर नेहरू को नहीं चाहते थे कि वे फिर चुने जाए, उसी मुद्दे पर बोस का विरोध कर रहे थे कि कहीं कांग्रेस वामपंथ की तरफ न झुक जाए. पटेल का विरोध विचारधारा को लेकर था न कि जवाहर या बोस नाम के व्यक्ति से. पटेल को लगता था कि बोस ने आईएनए बनाने से पहले कभी कोई जनआंदोलन नहीं किया है. वे कहा करते थे कि इस वक्त आज़ादी का आंदोलन ज़रूरी है या गांव चलो टाइप के समाजवादी आंदोलन चलायें. पटेल कहते थे कि आप अपना आंदोलन चलाइये मगर कांग्रेस के प्लेटफार्म का इस्तेमाल मत कीजिए. 1940 तक आते-आते बोस भी कहने लगे कि कांग्रेस अंग्रेजों से मिलकर सरकार बनाने का जुगाड़ करने लगी है. आचार्य नरेंद्रदेव ने सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया है. आज दक्षिणपंथ के इतिहासकार उन्हीं नरेंद्रदेव का इस्तेमाल नेहरू के खिलाफ़ करने लगे हैं.

वल्लभभाई पटेल, राजगोपालाचारी, गांधी, राजेंद्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू. ये पांचों कांग्रेस की धुरी थे. पटेल, गोपालाचारी और प्रसाद कांग्रेस में आने से पहले स्वतंत्र रूप से क्षेत्रीय नायक के रूप में स्थापित हो चुके थे. आज की राजनीति इन सभी को एक दूसरे के खिलाफ पेश कर रही है. पटेल और नेहरू को जितना भी एक दूसरे के खिलाफ़ पेश कर लिया जाए लेकिन नेहरू पटेल के विरोध के बाद भी बिना पटेल के न तो कांग्रेस अध्यक्ष बन सकते थे न प्रधानमंत्री. क्या आज इतनी लोकतांत्रिक विविधता किसी दल में है? इसका जवाब खोजेंगे तो आपको ‘रन फॉर यूनिटी’ में नहीं मिलेगा. प्रधानमंत्री ने ठीक कहा कि जो देश इतिहास को भूल जाता है वो इतिहास का निर्माण नहीं कर सकता. उन्हें यह भी कहना चाहिए कि जो देश इतिहास को उसके संदर्भों और बारीक विवरणों में जाकर नहीं देखता, वो इतिहास का कूड़ा कर देता है या फिर उसे एक मार्केटिंग इवेंट में बदल देता है. जिस संकीर्णता से किसी को याद करने के नाम पर राजनीति हो रही है, वह दिनोंदिन विकृत होती चली जाएगी. कल कोई बिहार से उठेगा और दावा करने लगेगा कि राजेंद्र प्रसाद को भुला दिया गया. कोई कहेगा मज़हरूल हक़ को भुला दिया गया. कोई राजगोपालाचारी को भुला देने की दावेदारी पर राजनीति करेगा और ‘रन फॉर गोपालाचारी’ करने लगेगा. राजेंद्र प्रसाद ने तो अपनी वकालत दांव पर लगाकर गांधी के साथ चंपारण गए थे. अंग्रेजों से उनके ताल्लुक़ात काफी अच्छे थे. मगर राजेंद्र प्रसाद और हक़ ने तो अपना तब दांव पर लगाया जब आंदोलन शुरुआती दौर में था. आज कोई राजेंद्र प्रसाद की चिट्ठियां निकालकर जातिवादी और घोर सांप्रदायिक तत्व भी साफ-साफ ढूंढ सकता है. अगर आप समय के हिसाब से देखेंगे तो तब नेताओं में जातिवाद और संप्रदाय को लेकर बहुत स्पष्ट मत नहीं थे. तो क्या आज का वर्तमान इस हिसाब से उन्हें शूली पर लटकाये या फूलों का माला पहनाये?

ज़रूरी है कि हम अपने ऐतिहासिक नायकों को इतिहास के बिना न देखें. यह एक ख़तरनाक प्रवृत्ति है. आज़ादी के दौर को लेकर भावुक होने से काम नहीं चलेगा. लोकतांत्रिक विविधता के बारे में सोचिये. आज किसी पार्टी में आंतरिक चुनाव नहीं होते. क्या पटेल को याद करने वाली बीजेपी में हुआ? दो नेताओं के विरोध को पार्टी अनुशासन के खिलाफ़ बता दिया जाता है और कोई नागपुर से परिवार का मुखिया आकर फैसला कर देता है. बीजेपी ही क्यों किसी दल में है? क्या बीजेपी कभी शिवसेना और अकाली दल के परिवारवाद पर बोलेगी? क्या उसने अपने भीतर और बाहर परिवारवाद पर समझौते नहीं किये हैं? राहुल गांधी ने जब पार्टी में आंतरिक चुनाव का काम शुरू किया तो कांग्रेस में ही विरोध हो गया? लोकतंत्र के गैरकांग्रेसी चिन्तकों ने भी इसका मज़ाक उड़ाया. क्या पता एक दिन संगठन में चुनाव की स्थिति उनके पद पर पहुंच जाए, जहां वे परिवार की वजह से बिठाये गए हैं. राहुल नौटंकी कर रहे हैं तो बाकी दलों ने इस प्रक्रिया को अपने यहां क्यों नहीं अपनाया. बसपा में तो परिवारवाद नहीं है तो क्या वहां लोकतंत्र है. क्या अध्यक्ष पद की दावेदारी कई नेता कर सकते हैं? कोई दल अपवाद नहीं है. किसी दल में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव नहीं होते. मनोनयन होता है.

मैंने बात की शुरूआत वर्तमान के प्रसंगों से की थी लेकिन इतिहास में चला गया. आज के इंडियन एक्सप्रेस में अपना दल पर एक अच्छी रिपोर्ट छपी है. आप देखिये कि वहां सत्ता संघर्ष की कैसी नई कहानी बन रही है. मां अपना दल की अध्यक्ष हैं. मां ने अपनी बेटी और सांसद अनुप्रिया पटेल को महासचिव पद से हटा दिया है. अनुप्रिया की जगह उनकी बड़ी बहन पल्लवी को उपाध्यक्ष बना दिया है. इस चार नवंबर को मां और बेटी अलग अलग रैलियां करेंगे. भारतीय राजनीति का यह अद्भुत नज़ारा है. यहां बेटे विरासत पर दावेदारी नहीं कर रहे बल्कि मां और बेटियों में बखरा लग रहा है. परिवारवाद की दावेदारी ज़मीन के बंटवारे जैसी हो गई है. पंकजा मुंडे के उभार को मैंने भी महिला नेतृत्व की दावेदारी की नज़र से प्रगतिशील नज़र से देखा था लेकिन इससे तो परिवारवाद ही मजबूत हो रहा है. किसी सांसद के बेटे को सांसद बनने से नहीं रोक सकते. बनना भी चाहिए लेकिन पार्टी संगठन में वो थोपा क्यों जाता है? उसके खिलाफ़ कोई चुनाव क्यों नहीं लड़ता? आज़ादी के पहले के कांग्रेस में ये सब होता था. आज किसी पार्टी में नहीं होता. सरदार पटेल को याद करना आसान है. उनकी याद में आप और हम दौड़ तो गए पर क्या पता चला कि हम कहां से दौड़े और कहां पहुंचे? एकता बिना विविधता के नहीं हो सकती. उस विविधता के लिए इन महान राजनीतिक दलों में कितनी जगह है. खुद से भी पूछिये कि आप अपने विरोधी का सरदार पटेल की तरह सम्मान कर सकते हैं, क्या आप जिस नेहरू से सरदार पटेल की तरह प्रचारित कथित नफ़रत करते हों उन्हें प्रधानमंत्री का पद सौंप सकते हैं. इतना लोड मत लीजिए. बेहतर है दौड़ ही आइये. मगर अगली बार विविधता के लिए भी दौड़ियेगा, तभी आप एकता का मर्म समझ पायेंगे.

(कस्बा से साभार)


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