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ये भी तो ख़ुदा की मर्ज़ी है, क़ुरआन की ज़ुबां भी अरबी है

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डॉ. नदीम ज़फर जिलानी

हर माह-ए-रमज़ान के वक़्त एक बहस सोशल मीडिया पर ज़रूर उभरती है, इसे रमज़ान कहें या रमदान. इंग्लैण्ड में रहने वाले डॉ. नदीम ज़फर जिलानी ने इसे एक फ़िज़ूल और बेमौका मसला बताते हुए एक मौजूं मिसरे के साथ इस असल मुद्दे की ताईदगी की है. – TwoCircles.Net




रमज़ान या रमदान

रमज़ान कहो, रमदान कहो
जो चाहो मेरी जान कहो,
यह बहस बड़ी मस्नूई है
बेकार की हरज़ह-गोई है

करते हैं वही इस पर ग़ुस्सा,
जो ‘एक नहीं रखते’ रोज़ा,
आदाब करो बस, कहते हैं,
और सलाम से नफ़रत करते हैं,

कर्फ़्यू ज़ुबां पे है नाफ़िज़
हो ख़ुदा, न हो अल्लाह हाफ़िज़
पर ख़ुदा में क्या दिलचस्पी हो,
अल्लाह से जिन्हें एलर्जी हो

जो रोज़े-नमाज़ पे हैं मायेल
हैं ’सौम-व-सला’ के भी क़ायल

तहज़ीब की यह यलग़ार नहीं,
यह अरबों की तलवार नहीं,
पहचान हमारी, क़िस्मत से,
है ‘मीर-ए-अरब’ की निस्बत से,

ये भी तो ख़ुदा की मर्ज़ी है,
क़ुरआन की ज़ुबां भी अरबी है


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