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धर्मनिरपेक्ष ‘महागठबंधन’ और साम्प्रदायिक गुत्थियां

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By राजीव यादव,

बिहार उपचुनाव में नीतीश-लालू के महागठबंधन को ६ सीटें और राजग को ४ सीटें मिलने के बाद पूरे देश में इस किस्म के गठबंधन बनने-बनाने के गुणा-गणित शुरु हो गए है. महागठबंधन को मिली सफलता से उत्साहित शरद यादव ने कहा कि “भाजपा को रोकने के लिए अगले चुनाव में अब देश भर में महागठबंधन करेंगे.” सांप्रदायिक ताकतों को शिकस्त देने वाले इस महागठबंधन के मद्देनज़र इस बात को जेहन में रखना चाहिए कि इस महागठबंधन के दोनों मुस्लिम प्रत्याशियों - नरकटिया गंज से कांग्रेस के फखरुद्दीन और बांका से राजद के इकबाल हुसैन अंसारी - की हार हुई है. बांका में कड़ी टक्कर देते हुए इकबाल मात्र ७११ मतों से हारे हैं पर इससे यह भी साफ़ है कि जातीय समीकरणों से ऊपर उठकर भाजपा को हिंदू वोट मिले हैं. महागठबंधन ने मुस्लिम वोटों को तो समेट लिया पर हिंदू वोटों को अब भी समेट नहीं पाया, जो एक जेहनियत है, जिससे लड़ने का वायदा महागठबंधन कर रहा है.

सामाजिक गठजोड़ के दबाव से बना राजनीतिक गठजोड़ तभी तक सत्ता के वर्चस्व को तोड़ पाएगा जब तक सामाजिक गठजोड़ बरकरार रहेगा. रही बात इस सामाजिक गठजोड़ की तो यह जातीय गिरोहबंदी है जो अभी कुछ ही महीने पहले ‘कम्युनल’ से ‘सेक्युलर’ हुआ है. बहरहाल, अभी कमंडल से मंडल बाहर नहीं निकल पाया है. नीतीश ने दलित-महादलित और पिछड़े-अति पिछड़े की जो रणनीतिक बिसात बिछाई, उसके कुछ मोहरे अभी भी दूसरे खेमें में बने हैं. इसे मंडल का बिखराव भी कहा गया जिसकी परछाई उत्तर प्रदेश में भी पड़ी. बिहार में जहां कुशवाहा व पासवान तो वहीं उत्तर प्रदेश में पटेल, शाक्य, पासवान समेत अति पिछड़ी-दलित जातियां भगवा खेमें में चली गयीं. पर ऐसा भी नहीं है कि इन जातियों के बल पर सिर्फ भाजपा मजबूत हुई. उदाहरण के तौर पर पटेल जाति के प्रभुत्व वाला अपना दल इसके पहले भी भाजपा से गठजोड़ कर चुका है. इसका अर्थ यह है कि बड़़ी संख्या में उन पिछड़ी जातियों का भी मत भाजपा में गया, जिन पर अति पिछड़ी-दलित जातियों के हिस्से की भी मलाई खाने का आरोप था.


Nitish Kumar and Lalu Prasad Yadav (तस्वीर साभार - हेडलाइंस टुडे)
नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव (तस्वीर साभार - हेडलाइंस टुडे)

यादव जाति के बाहुल्य और इस जाति से ही नाता रखने वाले मुलायम सिंह यादव के निर्वाचन क्षेत्र आज़मगढ़ से इस गणित को समझने की कोशिश की जा सकती है. इस निर्वाचन क्षेत्र के बारे में चौधरी चरण सिंह का कहना था कि अगर उन्हें आज़मगढ़ और बागपत में चुनना होगा तो वह आजमगढ़ को चुनेंगे. फिलहाल मुलायम सिंह ने मैनपुरी को छोड़कर आजमगढ़ को चुना है. जब नरेन्द्र मोदी ने वाराणसी से लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया तो आजमगढ़ से सांप्रदायिक ताकतों को मुंहतोड़ जवाब देने के दावे के साथ मुलायम अखाड़े में उतर गए. मुलायम के दांव और दावों का जब परिणाम आया तो पैरों तले जमीन खिसक गई. सपा से ही कभी सांसद रहे तत्कालीन भाजपा सांसद रमाकांत यादव दूसरे स्थान पर रहे तो बसपा के शाहआलम तीसरे पर रहे. इस परिणाम ने जहां यह साफ़ कर दिया कि प्रदेश के यादवों के सबसे बड़े नेता कहे जाने वाले मुलायम को एक यादव ने कड़ी टक्कर दी तो यहीं यह भी साफ हुआ की यादवों ने एक मुश्त वोट उन्हें नहीं दिया. वहीं तीसरे स्थान पर बसपा के शाहआलम का जाना यह साफ़ करता है कि उन्हें दलितों का वोट तो मिला पर मुसलमानों का नहीं क्योंकि अगर मुस्लिम वोट उन्हें मिलता तो मुलायम हार जाते क्योंकि जहां मुस्लिम वोट १९ फीसदी है तो यादव वोट २१ फीसदी है. ऐसे में मुस्लिमों ने मुलायम को वोट तो दिया पर मुलायम की अपनी ही जाति ने खुलकर ऐसा नहीं किया. ठीक इसी तरह जहां-जहां मुस्लिम प्रत्याशी रहे वहां कुछ ज्यादा ही जातिगत और सामाजिक समीकरणों से ऊपर उठकर मताधिकार किया गया. जिसका परिणाम संसद में उनकी कम संख्या है.

लोकसभा चुनाव में हार के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल ने मेरठ को केन्द्र बनाकर अब जाट-मुस्लिम गठजोड़ के भरोसे न रहते हुए अतिपिछड़ों व अतिदलितों को जोड़ने की बात कही है. निस्संदेह अतिपिछड़ी व दलित जातियों को जोड़ा जाए लेकिन इस गठजोड़ का आधार क्या हो, इसे भी स्पष्ट किया जाना जरूरी है क्योंकि पश्चिमी यूपी में जो सांप्रदायिक गोलबंदी हुई है, उसमें बह जाने का खतरा भी कम नहीं है. यह हालत सिर्फ यहीं नहीं बल्कि पूरे प्रदेश में है, मुलायम का गढ़ माने जाने वाले मैनपुरी के अलीपुर खेड़ा कस्बा हो या फिर अवध का फैजाबाद या शाहजहांपुर.

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सांप्रदायिकता फैलाने वालों से ज़रूर पूछें कि क्या मोहब्बत पर पाबंदी लगा दी जाएगी, पर इस बात का भी पुख्ता इंतिज़ाम करें कि सांप्रदायिक अफवाह तंत्र का खात्मा होगा. मेरठ, जिसे लव जिहाद व धर्मांतरण की प्रयोगशाला बताया जा रहा है, वहां इस साल बलात्कार के ३७ मामले आए हैं, जिनमें ७ में आरोपी मुस्लिम हैं और ३० में हिंदू हैं. ठीक इसी तरह मेरठ जोन के मेरठ, बुलंदशहर, गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, बागपत, हापुड़, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर और शामली में कुल ३३४ बलात्कार के मामले सामने आए हैं. जिनमें २५ में आरोपी मुस्लिम और स्त्री हिंदू, २३ में आरोपी हिंदू और स्त्री मुस्लिम, ९६ में दोनों मुस्लिम और १९० में दोनों हिंदू हैं. इस तरह देखा जाए तो यूपी में निःसदेह सरकार महिला हिंसा रोकने में विफल है पर स्त्री हिंदू या मुस्लिम से नहीं बल्कि अपने ही समाज के पुरुषों से ज्यादा उत्पीडि़त है.

जैसा कि राजनीतिक विश्लेषक भी मान रहे हैं कि बिहार के नतीजे भाजपा को और तीखे ध्रुवीकरण की तरफ ले जाएंगे, जिसकी तस्दीक बिहार से आने वाली सांप्रदायिक तनाव की खबरें कर रही हैं. लालू-नीतीश हों या फिर माया-मुलायम, सबने जातीय अस्मिता व अवसरवादी गोलबंदी करते-करते ऐसा समाज रच डाला है. अब सिर्फ इनके रिवाइवल या सर्ववाइवल से अधिक इस बात की चिंता की जानी चाहिए कि यह अविश्वास का सांप्रदायिक ढांचा कैसे ढहेगा. क्योंकि जातियों का जो स्ट्रक्चर है, वह धर्म से निकलता है और वहीं समाहित हो जाता है. इसीलिए इनकी अपनी ही जातियां लव जिहाद जैसे हिंदुत्ववाद प्रचार के प्रभाव में आकर इनसे बिखर जाती हैं.

आने वाले दौर में अगर सांप्रदायिकता जैसे सवालों को हल नहीं किया गया तो फिर जो मुस्लिम इसे रोकने के नाम पर वोट देता है वह भी अपने और पराए का निर्णय समुदाय के आधार पर लेने लगेगा. ऐसे में न तो यह कथित धर्म निरपेक्ष पार्टियां बचेंगी और धर्म निरपेक्षता भी संकट में आ जाएगी. सिर्फ यह कह देने से कि ‘मुस्लिमों ने हमें वोट नहीं दिया इसलिए हार हुई’ नहीं चलेगा. क्योंकि भाजपा की जीत ने अल्पसंख्यक वोट बैंक को नकारते हुए बहुंख्यक के बल पर सत्ता हासिल की है. ऐसे में सामाजिक न्याय के पैरोकार बहुसंख्यक को अपने पाले में लाकर दिखाएं. बिहार उपचुनाव में १० में से महागठबंधन के ४ व भाजपा के एक सवर्ण प्रत्याशी की जीत हुई है. ऐसे में क्या यह कहा जा सकता है कि जिस तरह से महागठबंधन के सवर्ण प्रत्याशी के पक्ष में पिछड़ों-अतिपिछड़ों, दलित-महादलित और मुस्लिमों के मत पड़े हैं, क्या सवर्ण मतदाता भविष्य में इन समाज से जुड़े महागठबंधन प्रत्याशियों को अपना मत देगा. जो भी हो पर चुनाव के ऐन पहले कम्युनल से सेक्युलर बनाने का सर्टीफीकेट बांटना बंद करना होगा, क्योंकि इससे धर्मनिरपेक्षता आहत होती है.


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