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अस्मानामा : मैं तो चार से निक़ाह करूंगा, लेकिन तुम्हारा क्या?

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By अस्मा अंजुम खान, TwoCircles.net,

(अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं और ढेर सारी बातें करती हैं.)

शनिवार का दिन मेरे लिए एक मशक्क़त से भरे हफ़्ते के अंत का सूचक होता है. पिछले छः दिनों के भीतर किए गए कामों के बाद मिलने वाला आराम मुझे अपने आगोश में लेने लगता है. इसी बीच एक शनिवार को एक बहन आती है और मुझे गले से लगाकर फूट-फूटकर रोने लगती है. उसने बताया कि आयशा और अन्य उम्माहतुल मोमिनीन के बारे में मेरी बातों ने उसके दिल को छू लिया. लेकिन अपनी उस रुलाई के बारे में पूछे जाने पर उसने जो बताया, उससे मैं न सिर्फ़ चकित हुई बल्कि अगले कुछ हफ़्तों तक मेरे भीतर डर बैठ गया था.

“बहन! आज मेरे शौहर का वलीमा है” उसने कहा था.

उसकी आवाज़ शान्त थी. इसके बाद किसी व्याख्या की ज़रूरत नहीं थी. मैं समझ गयी थी.
मैं भी एक पत्नी हूं. एक औरत हूं. दुनिया पूछेगी कि मुझे कैसा लगा, मैं चकित हुई, मुझे धक्का लगा, आश्चर्य हुआ, परेशान हुई या भयभीत हुई?



मेरे साथ सब कुछ एक साथ हुआ. मैं मौन थी और मुझे उस वक्त यूजीन आनेस्को की बात याद आई, ‘एक समय की बाद शब्द आपको विफल कर देते हैं.’

हां, उस समय भी शब्दों ने मुझे विफल कर दिया था.

बहुविवाह एक गंभीर और संवेदनशील मुद्दा है. बनाने वाले ने सब जानते हुए भी इसकी इजाज़त दे दी है, फ़िर भी इसमें कुछ पेंच हैं. इनके बारे में ज़्यादा बातें होती नहीं सुनाई देती हैं, अलबत्ता सोशल मीडिया पर भी मैंने अपने भाईयों द्वारा बहुविवाह पर के पक्ष में की गईं भयानक बहसें देखी हैं.

यदि बहुविवाह को सही तरीके से जीवन में लागू किया जाए तो हमारे समाज की बहुत सारी समस्याओं का अंत हो सकता है. लेकिन खुद की बीवियों में निर्णय करना एक बेहद कठिन, या लगभग असंभव कार्य है,

मुझे जो इस मामले का सबसे रोचक पहलू लगता है कि मर्द जात किस मूर्खतापूर्ण तरीके से बहुविवाह का पक्ष ले रही है, यह सोचे बिना कि उसके पास औरतों से जुड़े ज़्यादा गंभीर मुद्दे – जैसे विधवा विवाह, औरत को संपत्ति का हक़ और उसके खुलेपन की बहसें – ज़रूरी और आकस्मिक हैं.

मैं तो चार से शादी करूंगा. लेकिन तुम्हारा क्या?

आप लोग बहुविवाह की वक़ालत करते हैं, मंज़ूर है. लेकिन क्या आपको सबको ऐसा नहीं लगता कि सबसे पहले एक ऐसे बराबर समाज का निर्माण किया जाना चाहिए, जहां औरतों को उनका हक़ और उनका अधिकार मिले? यह ‘मिले’ और ‘मिलना चाहिए’ का लहज़ा मुझे भी बहुत पुरानी बीमारी सरीखा लगता है. इस ‘मिले’ का मतलब क्या है? हमारा अधिकार तो हमारा है और हम अपने अधिकारों के पक्ष में आवाज़ उठाने के लिए स्वतंत्र हैं. क़ुरआन और सुन्ना द्वारा दिए गए अधिकारों के लिए औरतें तक़ाज़ा क्यों नहीं करतीं? इसे क्यों पितृसत्तात्मक रूप दे दिया गया है? एक ऐसे समाज का निर्माण, जहां औरतें अपने अधिकारों और ज़रूरतों को सहज तरीके से पा सकें, एक स्वप्न के साकार होने सरीखा है. मेरा अंदेशा है कि ऐसे समाज में बहुविवाह जैसी रीति को ज़्यादा सहजता और आसानी से जज़्ब किया जा सकेगा. मेरी इस बात का मतलब यह नहीं कि मैं बहुविवाह की वक़ालत कर रही हूं. मेरी शिक़ायत इस बात को लेकर है कि आखिर कब हम महिलाओं की शिकायतों के बाबत बात रखना शुरू करेंगे.

यदि बहुविवाह के सन्दर्भ में इतने शोरगुल से भरे चर्चा-सत्र, वर्कशॉप, वीडियो लेक्चर और सोशल मीडिया पर विवाद हो रहे हैं, तों यही सारी चीज़ें विधवा-विवाह के लिए, महिलाओं के अधिकार के लिए, ख़ुला के लिए और सम्पत्ति में औरतों के अधिकार के लिए यह सारी बहसें क्यों नहीं हो रहीं हैं?

हमें बाक़ायदे मालूम है कि पैगम्बर मुहम्मद ने कहा था कि तीन चीज़ों में कभी देर नहीं करनी चाहिए, और उन तीन में से एक है विधवा-विवाह. लेकिन फ़िक्र किसे है?

हमें अपनी बहुत सारी बहनों के बारे में पता है जो अपनी शादी में गर्दन तक बोझ और परेशानियों से दबी हुई हैं, लेकिन ख़ुला की मांग करने का डर उन्हें और घुटन में धकेल देता है. इस प्रकरण से एक विराट सामाजिक समस्या का जुड़ाव है – क्या इस बारे में हम बात करें? कितनी ही बहनों-बेटियों के बारे में हम जानते हैं जिन्हें संपत्ति में बाप-भाईयों ने कोई हिस्सा नहीं दिया. वे लगभग हरेक परिवार में हैं. इन मामलों में कोई विकास नहीं है लेकिन मुझे विकास दिखता है तो सिर्फ़ उस बहस के रूप में जहां बहुविवाह के पक्ष में हमारे भाईयों द्वारा निम्न कारण गिनाए जा रहे हैं; एक, ऐसा सुन्नाह के तहत मंज़ूर है (हालांकि मुझे इस पर भी शक है कि दावा करने वाले लोगों में से कितनों ने असल में सुन्नाह को ज़िंदगी में उतारा होगा); मर्दों को मजबूत बनाया गया, यह उनकी ‘ज़रूरत’ है. और तीसरा कारण तो सबसे ज़्यादा रोचक है, आज के ज़माने में नज़र नीचे होना नामंज़ूर है, इसलिए चौथा कि मर्द प्रकृति द्वारा बहुविवाही बनाया गया है...और भी फलां फलां कारण हैं.

ईमान यानी अपने शौहर को दूसरी शादी के लिए प्रोत्साहित करना.

मुझे एक वाकये ने बेहद गुस्से से भर दिया था. इस मसले के सन्दर्भ में मेरे एक भाई ने कहा था कि यदि एक औरत के अंदर भरोसा और ईमान है तो उसे अपने शौहर को दूसरी शादी के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. जी हां, आपने कुछ भी गलत नहीं पढ़ा है. तो इस तरह से हमारे भाई हमें समझते हैं. यदि मैं दूसरे निकाह के लिए अपनी शौहर की हौसलाफजाही करूँ तो ही मैं वफ़ादार हूं. समर्थक कहते हैं कि यदि मुझे अपनी बहनों की सचमुच फ़िक्र है तो इसमें उन औरतों का साथ देना चाहिए.

मेरे भाईयों, मैं आप सब से कुछ बातें साझा करना चाहती हूं.

मेरी वफ़ादारी दूसरे निकाह के लिए मेरे पति की हौसलाफ़जाही पर निर्भर नहीं करती. मेरा भरोसा मेरे और मेरे परवरदीगार के बीच का आपसी मसला है. वैसे मैं यहां जोड़ दूं कि हम पत्नियां अपने पतियों को रोज़ फज्र सलाह के लिए जगाती हैं, कुरआन पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती हैं, किसी अनाथाश्रम जाकर अच्छे सामाजिक काम करने की सलाह देती हैं. लेकिन मुझे तो लगता है कि हमारे प्यारे और शरारती पतियों को एक बार और निकाह के लिए उत्साहवर्धन की ज़्यादा ज़रूरत है. मुझे नहीं समझ आता कि हमेशा औरतों से सबसे कठिन और नामुमकिन कामों की मांग क्यों की जाती है? जब अल्लाह ने लोगों पर उनकी अपनी कुव्वत से अधिक काम करने के लिए ज़ोर नहीं डाला तो ऐसी जोर-ज़बरदस्ती कोई नहीं कर सकता. इन बातों का मकसद है कि बेचारी बीवी पर जिम्मेदारियों का बोझ डाल दिया जाए और मस्तमौला पति जब चाहे एक बार और निकाह कर ले. यदि एक पुरुष एकाधिक निकाह करना चाहता है, तो बेशक कर सकता है लेकिन यह कैसी समझदारी है कि उसकी पहली बीवी से यह अपेक्षा की जाए कि नए निकाह में अपने पति का साथ दे?

यह अपेक्षा तो लगभग वैसी ही है कि इज़राइल से अपेक्षा की जाए कि वह फिलिस्तीन की मदद करे. और इस अपेक्षा में जो भी परिणाम सामने आएगा वह अमरीका की विदेश नीति सरीखा होगा, जिसका खामियाजा कमोबेश अमरीका को ही भुगतना पड़ता है. यदि लोगों को हमारी ईमानदारी पर इस बिना पर भरोसा करना हो कि हम दूसरे निकाह के लिए अपने शौहर की हौसलाफ़जाही करूँ तो यह गलत है. एक औरत की क्षमता का कमोबेश सभी को भान है, इसके बावजूद उससे उसकी क्षमता और कुव्वत से अधिक कार्य और योगदान की इच्छा रखना तो सरासर ज़ुल्म है. अल्लाह भी इस बात को जानता है. जब अल्लाह ने हमें अपनी कुव्वत से आगे जाकर कार्य करने को नहीं कहा, तो कोई और कैसे कह सकता है.

बहुविवाह की इजाज़त होते हुए भी सिर्फ़ एक से ही निकाह और उसे ताज़िंदगी निबाहने का विकल्प ज़्यादा उत्कृष्ट है. अल्लाह ने पैगम्बर मुहम्मद पर ताजिंदगी सिर्फ़ एक औरत से निकाह करने के लिए रोक लगा दी थी. पैगम्बर मुहम्मद ने ख़दीजा से तब निक़ाह किया जब वे २५ बरस के थे, और पैगम्बरी के दसवें साल में ख़दीजा की मौत तक यह निक़ाह चला, यानी लगभग २५ साल तक. उनके दोनों चर्चित दामादों, उथमान इब्न अफ्फां और अली भी उनके क़दम पर आगे बढ़े. अली को लगभग दो बार दिबारा निक़ाह करने से रोका गया. सम्भव है कि इसे एक अपवाद करार दे दिया जाए, लेकिन उसके पहले इस घटना के पीछे बसी भावनाओं को समझ कुछ सबक लिए जा सकते हैं. इस बारे में व्यापक हदीस भी लिखी गयी है. ऐसा नहीं है कि पैगम्बर मुहम्मद, उनके दामादों और अन्य दो सहयोगियों ने दोबारा निक़ाह नहीं किया, उन्होंने किया लेकिन पहली बीवी की मृत्यु के बाद. इसके साथ उन्होंने यह भी ज़ाहिर कर दिया कि सिर्फ़ एक निक़ाह के साथ भी मुस्लिम पुरुष शान से जीवन व्यतीत कर सकता है.



आज की तारीख में असल में दूसरा निक़ाह करने का मतलब क्या है? क्या यह मजबूर औरत को और ज़्यादा सताने का हथियार सरीखा नहीं है? ऐसे अधिकतर मामलों में दूसरी पत्नी अमूमन आर्थिक रूप से मजबूत पायी जाती है. इस राउंड के लिए धनी, विधवा, बढ़िया तनख्वाह वाली तलाकशुदा औरतें ‘चुनी’ जाती हैं. मेरी दृष्टि से मुझे तो यही दिखता है, मुमकिन है कि आप लोगों का नज़रिया कुछ और हो. दोबारा निकाह करते अपने भाईयों को देख – जो कमज़ोर नहीं ताक़तवर हैं – कभी ही पता चला कि उन्होंने गरीब, दो बच्चों की विधवा माँ, परित्यक्ता, आर्थिक रूप से कमज़ोर व तलाकशुदा लोगों से निकाह किया. क्या आपको नहीं लगता कि हमारे इन भाईयों को खुद को इतना ताक़तवर क़रार देने के पहले किसी कमज़ोर और सामाजिक हाशिए पर चली गयी औरत से निकाह करना चाहिए? यदि आयशा को अपवाद रखें, तो पैगम्बर ने भी बेवाओं और तलाकशुदा औरतों से निकाह किया. बहरहाल, मुझे समझ में बिलकुल नहीं आता कि दूसरी बीवी के तौर पर आर्थिक रूप से मजबूत औरत को चुनने के पीछे सही तर्क क्या है? दूसरे निकाह के लिए ऐसी औरतें पहली पसंद होती जा रही हैं.

इस समय में बेवा से निकाह और खुला के मुद्दे पर किसी किस्म का दाग लगा है, जो इसे मुख्यधारा में आने से रोकता है. मेरे भाईयों को इसे प्रमुखता से लागू करने की दिशा में कार्य करना चाहिए. ऐसा करना कुछ हद तक दुर्भाग्य झेल रही इन औरतों के लिए किसी तोहफे से कम नहीं होगा. तलाक़ मांगने और ऐसे ही कई सारे अधिकारों को जीवन में कई सारी औरतें अपना जीवन अकेले और परेशानियों के साए में बिता देती हैं. ऐसी कई सारी महिलाओं की गिनती भी अब मुझे भूल चुकी है. यदि एक औरत उम्र के किसी भी पड़ाव में विधवा हो जाती है तो उसके लिए लगभग सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, लेकिन जब किसी मर्द की बीवी मरती है तो उसके लिए सारे रास्ते खुले होते हैं. औरतें अपनी भीतर के कुदरती विनयभाव के चलते अपनी इच्छाओं के मद में कोई आवाज़ नहीं उठा पाती हैं, जिसका खामियाजा आखिर में उन्हें ही भुगतना होता है. इस मामले में यदि कोई मिसाल रखनी हो तो सहाबियात के बारे में बात की जा सकती है, जिन्होंने तलाक़ और बेवा होने के बाद न सिर्फ़ एक बार बल्कि कई बार निक़ाह किया.

हमारे कुछ भाई कहते हैं कि महिलाओं का एक निक़ाह करना संस्कृति के साथ चलने का चिन्ह है. मैं विनयपूर्वक उनसे पूछना चाहूंगी कि यदि कोई लगभग 65 वर्ष की माँ, बहन, विधवा फ़िर से निकाह करने की इच्छा रखती है तो क्या उसे संस्कृति के खिलाफ़ जाता करार देकर भौहें नहीं तिरछी की जाएँगी? मैं ऐसे एक मामले की गवाह हूं जहां 55 साल की विधवा और तीन लड़कों की माँ ने फ़िर से निकाह करने का फ़ैसला किया. इस फैसले के बाद जो भी हुआ, वह ‘ऐतिहासिक’ था. उस औरत को कोसा गया, उसकी भर्त्सना की गयी और पूरे जोशोखरोश के साथ उसके चरित्र का हनन कर दिया गया. मुझे नहीं लगता कि इन दुर्भावनाओं का असल मतलब समझने के लिए आपको औरत होने की आवश्यकता है. यदि पुरुषों को जीवनसाथी की आवश्यकता है, तो महिलाओं को भी है. इस बात को पूरे जोश के साथ प्रचार के दायरे में लाना चाहिए. लेकिन यहां महिला अधिकारों पार कोई सार्थक पहल होते हुए दिख ही नहीं रही है.

यह बात तो ज़ाहिर है कि यह मसला ज़रूरी है और इसके पक्ष में प्रबलता से खड़ा होना होगा. लेकिन हम औरतों के बजाय अपने भाईयों की भागेदारी भी इस मामले में सुनिश्चित करनी होगी ताकि हमें वह मिल सके जो कानूनन हमारा है. वे कहते हैं कि मैं तो चार निकाह कर सकता हूं लेकिन तुम्हारे बारे में नहीं पता. वे बड़ी मासूमियत से पूछते हैं, ‘आपका क्या?’

एक संतुलित समाज के निर्माण के लिए हमारे प्रयास और नीतियां भी संतुलित होने चाहिए. महिलाओं की समस्याओं पर सार्थक विमर्श इस दिशा में पहला क़दम साबित हो सकता है. फ़िर भी आखिर में यह प्रश्न उठता है कि क्या कोई सुन भी रहा है? इतना सन्नाटा क्यों है?

(अनुवाद: सिद्धान्त मोहन)


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