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नक्सलविरोधी ऑपरेशनों का सच

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By हिमांशु कुमार,

जब हम दंतेवाडा में काम करते थे तो हमारे साथ आश्रम में काम करने एक लड़का आया. मेरे साथियों ने बताया कि पहले वह ‘सलवा जुडूम’ में एसपीओ था लेकिन बाद में उसे अपने काम से नफरत हो गयी थी और उसने वह काम छोड़ दिया. उसने मुझसे कहा कि अब वह गाँववालों के लिए काम करना चाहता है इसलिए हमारे आश्रम से जुड़ना चाहता है. वह काम करने लगा. बाद में उसने मुझे कई घटनाएँ सुनाई. उनमे से दो घटनाएँ आज आपके साथ बाँट रहा हूँ.

उसने बताया कि एक बार पुलिस और सीआरपीएफ़ ने एसपीओ के साथ एक गाँव पर हमला किया. सारे गाँव वाले जान बचाने के लिए जंगल की तरफ भाग गए. पुलिस दल झोपड़ियों में घुस-घुस कर आदिवासियों को ढूँढने लगा. इस लड़के ने भी एक तरफ बने एक झोपड़ी के दरवाजे पर लात मारी. अंदर एक आदिवासी परिवार मौजूद था. तीन छोटे-छोटे बच्चे डर कर थर-थर काँप रहे थे. उनके माँ बाप ने बच्चों की रोने की आवाज़ रोकने के लिए उनके मूंह दबाये हुए थे. उनके माँ बाप भी रो रहे थे.



साभार - चौथी दुनिया

उस लड़के ने मुझे बताया, ‘गुरूजी, वैसे तो ऐसे मामले में हम सबको मार ही देते थे. लेकिन उस दिन उन्हें देख कर मेरे मन में उनके मर जाने के बाद उनकी लाशों की कल्पना आयी. मुझे लगा मुझे उल्टी हो जायेगी. मैंने बच्चों के बाप से कहा की बच्चों को लेकर चुपचाप घर के पीछे से जंगल में भाग जाओ. वो डर रहा था की मैं शायद उन्हें पीछे से गोली मार दूंगा. मैंने उसे जोर से धक्का मारा और कहा भाग जल्दी से! वो पूरे परिवार सहित जंगल में भाग गया.’

लड़के ने आगे मुझे बताया, ‘इधर मेरे दूसरे एसपीओ दोस्तों को एक घर में एक बूढा आदमी मिल गया. उन्होंने बुड्ढे के हाथ उसके पीछे बाँधकर उसे उसके झोपड़े के बरामदे की लकड़ी के खम्बे से बाँध दिया. पहले तो वो लोग उससे गाँववालों के बारे में पूछते रहे. तभी एक पुलिसवाला बोला ‘ये साला हमारे किसी काम का नहीं है. टाइम खराब मत करो. खत्म कर दो इसको.’ एक एसपीओ ने बूढ़े के बरामदे में पड़ी हुई कुल्हाड़ी उठाई और बूढ़े की गर्दन पर मार दी. एक बार में ही बूढ़े की गर्दन एक तरफ झूल गई.

दूसरी तरफ हमारी एक टुकड़ी को दो आदिवासी लड़कियां मिल गयीं. उनमें से एक को बुखार था, शायद इसलिए वो भाग नहीं पायी. दूसरी लगभग पन्द्रह साल की एक नाबालिग लडकी थी. वह भी सोयी हुई थी. लगता था उसके घरवालों को उसे अपने साथ ले जाने का मौका ही नहीं मिला था. मेरे एसपीओ साथी और सीआरपीएफ़ वाले उन लड़कियों को लेकर एक घर में घुस गए. अंदर से उन लड़कियों के चिल्लाने की और लड़कों के हंसने की आवाजें आ रही थी. कुछ देर बाद हमारे बड़े साहब आ गए. उन्होंने पूछा, ‘क्या हो रहा है यहाँ?’ हमने कहा, ‘सर दो औरतों को पकड़ा है.’ साहब ने कहा उन्हें इधर लाओ. लड़के दोनों लड़कियों को धकेलते हुए साहब के सामने लाए. दोनों लड़कियां बिना कपड़ों के थीं. साहब ने कहा इन्हें ड्रेस पहनाओ. इनके बाल काटो और फोटो खींचो. दोनों लड़कियां ज़मीन पर बैठकर रो रही थी. हम लोगों ने अपने पिट्ठू से नक्सलियों वाली हरी ड्रेस निकाली. जबरदस्ती उन लड़कियों को पहनाई. फिर अपनी बंदूके उनके कंधे पर टाँगी. एक सिपाही ने उनके बाल नक्सल लड़कियों जैसे काट दिए. फिर हमने उनकी फोटो खींची. उन्हें लेकर हम थाने आ गए. वहाँ पुलिस वाले इनसे दो हफ्ते तक पूछताछ करते रहे. थाने में रात को बहुत सारे पुलिस वाले और एसपीओ लड़के इनके साथ गलत काम भी करते थे.

दो हफ्ते बाद पुलिस ने इन लड़कियों को कोर्ट में पेश किया जज साहब ने इन लड़कियों को नक्सली मान कर जेल भेजने का आर्डर दे दिया.

(टिप्पणी - मैं इन दोनों लड़कियों के परिवार के सदस्यों को लेकर जेएनयू में एक जन सुनवाई में लेकर आया था. कुछ महीने बाद दिल्ली में इनके परिवार वालों ने एक प्रेस कांफ्रेंस भी की थी. मीटिंग हाल में मौजूद हर पत्रकार की आँखें गीली थी. लेकिन अगले दिन दिल्ली के एक भी अखबार ने यह खबर नहीं छापी थी. मेरे दंतेवाडा में रहते समय हमने इनमें से एक लडकी को ज़मानत पर बाहर निकाल लिया था. लेकिन बाद में मुझे दंतेवाडा छोड़ना पड़ा. मुझे लगता है दूसरी लडकी अभी भी जेल में होगी.)

उस लड़के ने एक और किस्सा बताया, ‘एक बार हम लोग कॉम्बिंग के लिए सबेरे-सबेरे एक गाँव में पहुंचे. गाँव के बाहर ही खेतों की रखवाली करने वाले पांच बूढ़े आदमी आग ताप रहे थे. अचानक अपने चारों तरफ से पुलिस को आते देख वे बूढ़े डर कर खड़े हो गए. एक सिपाही ने गोली चला दी. वो पाँचों आदिवासी बूढ़े डर कर भागने लगे. पुलिस ने उन पर फायरिंग शुरू कर दी. तीन बूढ़े वहीं मर गए. दो बच कर जंगल में भाग गए.’

हमारी फायरिंग की आवाज़ सुन कर पूरा गाँव खाली हो गया. तलाशी में हमें गाँव में कोई नहीं मिला. एसपी साहब ने कहा, ‘इन्हें बुड्ढों को ड्रेस पहनाओ. हम लोगों ने तीनो बुड्ढों की लाशों को अपने साथ लाई गयी नक्सली ड्रेस पहनाई. एस पी साहब ने कहा बन्दूक रखो. हम लोगों ने अपने साथ लाई हुई भरमार बंदूकें लाशों के बगल में रख दीं. एसपी साहब ने लाशों के साथ फोटो खिंचवायीं. हमने गाँव से एक बैलगाड़ी ली और तीनों लाशों को लेकर जिला मुख्यालय आ गए.

एसपी साहब ने फोन करके पत्रकारों को बुलाया. पत्रकारों से कहा लिखिए – “सर्चिंग अभियान के दौरान नक्सलियों के एक बड़े दल ने पुलिस पार्टी पर घात लगा कर हमला किया. पुलिस के जवानों ने पोजीशन लेकर नक्सलियों की फायरिंग का मुंहतोड़ जवाब दिया. लगभग दो घंटे भयंकर गोलीबारी हुई जिसमे हमारे सिपाहियों ने अद्भुत वीरता का परिचय दिया. इस मुठभेड़ में एसपी साहब के कुशल नेतृत्व में सुरक्षा बलों ने तीन दुर्दांत माओवादियों को ढेर कर दिया.”

यह खबर प्रदेश के सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई. राज्य सरकार ने एसपी साहब का नाम राष्ट्रपति वीरता पदक हेतु भेजा. अगले वर्ष एसपी साहब को वीरता के लिए राष्ट्रपति पुलिस पदक प्रदान किया गया.

(टिप्पणी - वो एस पी साहब अभी भी छत्तीसगढ़ के एक महत्वपूर्ण जिले के एसपी हैं. इन विवरणों में मैंने किसी भी स्थान व्यक्ति अथवा समय का उल्लेख नहीं किया है. परन्तु यदि राज्य शासन चाहे तो इस विवरण की सत्यता को चुनौती दे सकती है. तब मैं अदालत में सारे विवरण दे दूंगा तथा गवाह भी पेश कर दूंगा.)

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[हिमांशु कुमार ने लंबा समय दंतेवाड़ा में आदिवासियों के लिए काम करते वक्त गुजारा है. वे अभी भी ग्रामीण-आदिवासियों के हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं. उनका ब्लॉग http://www.dantewadavani.blogspot.in. यह किंचित पुराना आलेख उनके ब्लॉग से साभार.]


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